Sunday, 29 December 2019
Monday, 23 December 2019
Wednesday, 18 December 2019
Tuesday, 17 December 2019
ज्योतिष में सन्यास के योग कैसे बनता है जाने
ज्योतिष में सन्यास के योग कैसे बनता है जाने
कुंडली में पंचम भाव से ईश्वर प्रेम और नवम भाव से धर्म विषयक अनुष्ठान आदि का विचार किया जाता है। नवमेश एवं पंचमेश में अर्थात भक्ति एवं अनुष्ठान दोनों में शुभ सम्बन्ध हो तो जातक उच्च श्रेणी का साधक बनता है । दसम स्थान को कर्म स्थान कहते हैं । इसलिए पंचमेश , नवमेश अथवा दसमेश से सम्बन्ध हो तो फल में उत्कृष्टता आ जाती है ।
शनि एक न्यायकारी ग्रह है । य़ह जातक की कठिन परीक्षा लेकर उसके विचारों को शुद्ध और पवित्र कर देता है . शनि का समबन्ध नवम, पंचम या नवमेश या पंचमेश से हो तो जातक तपस्वी बनता है।
जन्म कुंडली में चार , पांच , छह या सात ग्रह एकत्रित होकर किसी एक राशी में बैठें हों , तो ऐसा जातक सन्यासी होता है . परन्तु इन सब ग्रहों में एक ग्रह का बलि होना आवश्यक है. केवल चार या चार से अधिक ग्रहों के एकत्रित होने सन्यास योग नही बनता है. उनमें से एक ग्रह का दशमेश या दशम से सम्बन्ध होना तथा एक ग्रह का बलवान होना जरुरी है।
सूर्य प्रव्रज्या कारक हो तो जातक वन, पर्वत या नदी किनारे आश्रम में धूनी रमाकर रहता है. सूर्य गणेश व शक्ति का उपासक व ब्रह्मचारी बनाता है।
सूर्य प्रव्रज्या कारक हो तो जातक वन, पर्वत या नदी किनारे आश्रम में धूनी रमाकर रहता है. सूर्य गणेश व शक्ति का उपासक व ब्रह्मचारी बनाता है।
चन्द्रमा प्रव्रज्या कारक हो तो जातक श्रावक, एकांतवासी एवं देवी भक्त होता है.
मंगल प्रव्रज्या कारक हो तो जातक बौद्ध धर्म का उपासक , गेरुवा वस्त्रधारी , जितेन्द्रिय, भिक्षावृति लेने वाला सन्यासी होता है .
वृहस्पति प्रव्रज्या कारक हो तो जातक भिक्षुक, दंडधारी, तपस्वी, धरम शास्रों के रहश्य को खोजने वाला , ब्रह्मचारी, ततः गेरुवा वस्त्रधारी होता है।
मंगल प्रव्रज्या कारक हो तो जातक बौद्ध धर्म का उपासक , गेरुवा वस्त्रधारी , जितेन्द्रिय, भिक्षावृति लेने वाला सन्यासी होता है .
वृहस्पति प्रव्रज्या कारक हो तो जातक भिक्षुक, दंडधारी, तपस्वी, धरम शास्रों के रहश्य को खोजने वाला , ब्रह्मचारी, ततः गेरुवा वस्त्रधारी होता है।
शुक्र प्रव्रज्या कारक हो तो जातक वैष्णव धर्म परायण , व्रतादि करने वाला सन्यासी होता है. भक्ति द्वारा अर्थ साधना उसका लक्ष्य होता है.
शनि प्रव्रज्या कारक हो तो जातक दिगंबर, निर्वस्त्र रहने वाला , फ़कीर और कठोर तपस्वी होता है.
चार या चार से अधिक ग्रह एक राशी में एकत्रित होने पर सन्यास प्रवृति होती है. लग्न एवं चंद्रमा से मनुष्य के शरीर एवं मन का विचार होता है. लग्न व चन्द्रमा का सम्बन्ध जब शनि से हो तो जातक सन्यासी होता है।
शनि प्रव्रज्या कारक हो तो जातक दिगंबर, निर्वस्त्र रहने वाला , फ़कीर और कठोर तपस्वी होता है.
चार या चार से अधिक ग्रह एक राशी में एकत्रित होने पर सन्यास प्रवृति होती है. लग्न एवं चंद्रमा से मनुष्य के शरीर एवं मन का विचार होता है. लग्न व चन्द्रमा का सम्बन्ध जब शनि से हो तो जातक सन्यासी होता है।
यदि लग्नाधिपति पर किसी ग्रह की दृष्टि शनि पर हो तो सन्यास योग बनता है. शनि पर किसी ग्रह की दृष्टि न हो तो तथा शनि की दृष्टि लग्नधिपति पर पड़ती हो तो सन्यास योग होता है. शनि की दृष्टि निर्बल लग्न पर पड़ती हो , चन्द्र रशिपति अर्थात जन्म कालीन चन्द्रमा जिस राशी में हो उसके स्वामी पर किसी गृह की दृष्टि न हो परन्तु राशिपति पर शनि की दृष्टि हो तो ऐसा जातक को शनि अथवा राशिपति में जो बली हो उसकी दशा, अन्तर्दशा में सन्यास योग होता है।
जन्म राशी निर्बल हो , उस पर बलि शनि की दृष्टि हो तो सन्यास योग बनता है.
चन्द्रमा शनि के प्रभाव में हो और उस पर शनि की दृष्टि हो अथवा चन्द्रमा शनि अथवा मंगल के नवमांश में हो और उस पर शनि की दृष्टि हो तो सन्यास योग बनता है.
शनि नवम स्थान में हो उस पर किसी ग्रह की दृष्टि न हो तो ऐसा जातक राजा होने पर भी सन्यासी होता है, और कभी कभी सन्यासी होने पर भी राजतुल्य हो जाता है.
चन्द्रमा नवम स्थान में हो और किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो राजयोगादी रहते हुए भी सन्यासियों में राजा के सामान होता है.
चन्द्र-मंगल एक राशी में हो तथा उस पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सन्यासी होता है.
शनि और वृहस्पति साथ होकर नवम या दसम में उपस्थित हों और एक ही नवमांश में हो तो जातक सन्यासी बनता है .
शनि नवम स्थान में हो उस पर किसी ग्रह की दृष्टि न हो तो ऐसा जातक राजा होने पर भी सन्यासी होता है, और कभी कभी सन्यासी होने पर भी राजतुल्य हो जाता है.
चन्द्रमा नवम स्थान में हो और किसी भी ग्रह से दृष्ट न हो तो राजयोगादी रहते हुए भी सन्यासियों में राजा के सामान होता है.
चन्द्र-मंगल एक राशी में हो तथा उस पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सन्यासी होता है.
शनि और वृहस्पति साथ होकर नवम या दसम में उपस्थित हों और एक ही नवमांश में हो तो जातक सन्यासी बनता है .
Friday, 13 December 2019
जन्म कुंडली के गण बताते है आप कैसे हैं
जन्म कुंडली के गण बताते है आप कैसे हैं
इंसान के गण जन्म कुंडली माध्यम से किसी भी व्यक्ति के जीवन से जुड़ी कई सारी बातों के बारे में पता लगाया जा सकता है।
आप कैसे हैं, आपका स्वाभाव कैसा है, आपको क्यात पसंद और किस तरह के लोगों से आपकी सबसे ज्यादा बनती है, इन सभी तरह की बातों का पता जन्मकुंडली का आंकलन करने के बाद लगाया जा सकता है।
ज्योतिषशास्त्र में किसी भी व्यक्ति के जीवन की गणना के लिए उसके जन्म पर आधारित गण का आंकलन भी किया जाता है। किसी व्यक्ति का व्यवहार कैसा होगा, ये इंसान के गण पर निर्भर करता है ।ज्योतिष शास्त्र में इंसान के गण को तीन भागों में बांटा गया है – देव गण, मनुष्य गण और राक्षस गण।
इंसान के गण –राक्षस गण से संबंधित जातकों में अपने आसपास की ऊर्जा को पहचानने और महसूस करने की शक्ति होती है। इस गण से ताल्लुक रखने वाले लोग सामान्य लोगों की तुलना में अपने आसपास फैली बुरी शक्तियों को भांप लेत हैं।
योतिषशास्त्र में जैसे कि तीन गणों के बारे में बताया गया है – देव, मनुष्य और राक्षस गण।
देव गण से संबंधित लो उदार, बुद्धिमान, साहसी, अल्पाहारी, समृद्ध और दान-पुण्य करने वाले होते हैं।
मनुष्य और राक्षस गण
वहीं मनुष्य गण के जातक अभिमानी, समृद्ध और धनुर्विद्या में निपुण होते हैं। इसके बाद राक्षस गण की बात करें तो इन लोगों में दूसरों की तुलना में विशेष शक्तियां होती हैं।
किसी भी मनुष्स के जन्म नक्षत्र एवं जन्मकुंडली के आधार पर उसके गण की पहचान की जा सकती है।
राक्षस गण वाले जातक के गुण
राक्षस गण से ताल्लुक रखने वाले लोग विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं। इन जातकों की छठी इंद्रिय काफी शक्तिशाली और सक्रिय होती है।इस गण वाले लोग कठिन परिस्थिति में भी धैर्य और साहस से काम लेते हैं। ये लोग अपने जीवन में हर मुश्किल का डटकर सामना करना जानते हैं।गण राक्षस कृत्तिका, अश्लेषा, मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र में बनता है।
अगर आपका जन्म इन नक्षत्रों में हुआ है तो आपका गण राक्षस हो सकता है लेकिन इसका मतलब से बिलकुल भी नहीं है कि राक्षस गण से ताल्लुक रखने वाले लोगों में राक्षसी गुण होते हैं बल्कि इनमें कुछ खास तरह के गुण पाए जाते हैं। देव गण वाले जातक बेहद शांत और सरल स्वभाव के होते हैं। इनमें दान-पुण्य करने का गुण भी विद्यमान रहता है जबकि मनुष्य गण के जातक सामान्य व्यवहार करते हैं।
ये है इंसान के गण के बारे में – अपनी जन्म कुंडली के आधार पर आप बड़ी आसानी से अपने गण और उससे जुड़ी विशेषताओं के बारे में जान सकते हैं।
अपने गण के बारे में जानने के बाद अपने भविष्य और दूसरों के साथ अपने आचरण के बारे में बड़ी आसानी से जाना जा सकता है।
Wednesday, 11 December 2019
Monday, 9 December 2019
कुंडली मेंजन्म लग्न या राशि वृषभ है तो कोन सा रत्न आपके लिया शुभ हैं।
कुंडली मेंजन्म लग्न या राशि वृषभ है तो कोन सा रत्न आपके लिया शुभ हैं।
Vrishabha lagn &rashi stone
कुंडली और रत्न
लग्न कुंडली के अनुसार कारकर ग्रहों के (लग्न, नवम, पंचम) रत्न पहने जा सकते हैं। लग्न, नवम और पंचम राशि के स्वामी आपकी कुंडली के अनुसार लग्नेश वीनस (शुक्रा) , पंचमेश बुध (बुद्ध) और नवमेश शनि (शनि) है. रतन धरण करे।
आपकी जन्म लग्न या राशि वृषभ है .
डायमंड (हीरा)
शुक्रवार (शुक्वार), मध्य फिंगर (माध्याय)
एमरल्ड (पन्ना)
बुधवार (बुद्धवार) , लिटिल फिंगर (कनिष्ठ)
ब्लू नीलम (नीलम)
शनिवार (शनिवार), मध्य फिंगर (माध्याय)
Sunday, 8 December 2019
मकर संक्रांति पर्व तिथि व मुहूर्त 2020
मकर संक्रांति पर्व तिथि व मुहूर्त 2020
भारत में एक पर्व है मकर संक्रांति| यह हिन्दू धर्म का प्रमुख पर्व है| ज्योतिष के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है| सूर्य के एक राशि से दूसरी में प्रवेश करने को संक्रांति कहते हैं| दरसल मकर संक्रांति में 'मकर' शब्द मकर राशि को इंगित करता है जबकि 'संक्रांति' का अर्थ संक्रमण अर्थात प्रवेश करना है| चूंकि सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, इसलिए इस समय को 'मकर संक्रांति' कहा जाता है| मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायण भी कहा जाता है| इस दिन गंगा स्नान कर व्रत, कथा, दान और भगवान सूर्यदेव की उपासना करने का विशेष महत्त्व है|
मकर संक्रांति पर्व का महत्त्व व मान्यताएं -
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को नकारात्मकता तथा उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है| इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक कर्मों का विशेष महत्व है| ऐसी धारणा है कि इस दिन किया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है| इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है| जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है-
माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥
मकर संक्रांति से जुड़ी कई प्रचलित पौराणिक कथाएं हैं| ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भानु अपने पुत्र शनिदेव से मिलने उनके लोक जाते हैं| शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं| इसलिए इस दिन को मकर सक्रांति के नाम से जाना जाता है|
यह भी माना जाता है मकर संक्रांति के ही दिन भागीरथ के पीछे पीछे माँ गंगा मुनि कपिल के आश्रम से होकर सागर में मिली थीं| अन्य मान्यता है कि माँ गंगा को धरती पर लाने वाले भागीरथ ने अपने पूर्वजों का इस दिन तर्पण किया था| मान्यता यह भी है कि तीरों की सैय्या पर लेटे हुए पितामह भीष्म ने प्राण त्यागने के लिए मकर संक्रांति के दिन का ही चयन किया था| यह विश्वास किया जाता है कि इस अवधि में देहत्याग करने वाला व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से पूर्णत: मुक्त हो जाता है|
मकर संक्रांति कहाँ - कहाँ और किस रूप में मनाई जाती है -
जैसी विविधता इस पर्व को मानाने में है वैसी किसी और पर्व में नहीं| त्यौहार के नाम, महत्त्व और मनाने के तरीके प्रदेश और भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदल जाते हैं| दक्षिण भारत में इस त्योहार को पोंगल, तो वहीं उत्तर भारत में इसे लोहड़ी, खिचड़ी, उत्तरायण, माघी, पतंगोत्सव आदि के नाम से जाना जाता है मध्यभारत में इसे संक्रांति कहा जाता है|
मकर संक्रांति के विशेष पकवान -
शीत ऋतु में वातावरण का तापमान बहुत कम होने के कारण शरीर में रोग और बीमारियां जल्दी घात करती हैं| इसलिए इस दिन गुड़ और तिल से बने मिष्ठान्न या पकवान बनाये, खाये और बांटे जाते हैं| इन पकवानों में गर्मी पैदा करने वाले तत्वों के साथ ही शरीर के लिए लाभदायक पोषक पदार्थ भी मौजूद होते हैं| इसलिए उत्तर भारत में इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है तथा गुड़-तिल, रेवड़ी, गजक आदि का प्रसाद बांटा जाता है|
मकर संक्रांति पर्व तिथि व मुहूर्त 2020
मकर संक्रांति 2020
15 जनवरी
संक्रांति काल - 07:19 बजे (15 जनवरी 2020)
पुण्यकाल - 07:19 से 12:31 बजे तक
महापुण्य काल - 07:19 से 09:03 बजे तक
संक्रांति स्नान - प्रात:काल, 15 जनवरी 2020
Saturday, 7 December 2019
Monday, 2 December 2019
आदित्य हृदय स्तोत्र- असफलताओं पर विजय प्राप्त करने वाला
आदित्य हृदय स्तोत्र- असफलताओं पर विजय प्राप्त करने वाला
ADITYA HRIDAY STOTRA
वाल्मीकि रामायण के अनुसार “आदित्य हृदय स्तोत्र” अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति हेतु दिया गया था. आदित्य हृदय स्तोत्र का नित्य पाठ जीवन के अनेक कष्टों का एकमात्र निवारण है. इसके नियमित पाठ से मानसिक कष्ट, हृदय रोग, तनाव, शत्रु कष्ट और असफलताओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है. इस स्तोत्र में सूर्य देव की निष्ठापूर्वक उपासना करते हुए उनसे विजयी मार्ग पर ले जाने का अनुरोध है. आदित्य हृदय स्तोत्र सभी प्रकार के पापों , कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति कराने वाला, सर्व कल्याणकारी, आयु, उर्जा और प्रतिष्ठा बढाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है.
'आदित्यहृदय स्तोत्र'
विनियोग
ॐ अस्य आदित्य हृदयस्तोत्रस्यागस्त्यऋषिरनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदयभूतो
भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।
ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।
करन्यास
ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि अंगन्यास
ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
आदित्यहृदय स्तोत्र
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम्।।1।।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा।।2।।
उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।3।।
'सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।'
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।।4।।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम्।।5।।
'इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है 'आदित्यहृदय'। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।'
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्।।6।।
'भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो।'
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।7।।
'सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं।'
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः।।8।।
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः।।9।।
'ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।'
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः।।10।।
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्।।11।।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः।।12।।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः।।13।।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः।।14।।
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते।।15।।
'इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। (इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है।'
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।16।।
'पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।'
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः।।17।।
'आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है।'
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते।।18।।
'(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।'
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।20।।
'आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।'
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे।।21।।
'आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।'
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः।।22।।
'रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।'
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्।।23।।
'ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।'
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः।।24।।
'(यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।'
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव।।25।।
'राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।'
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति।।26।।
'इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।'
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्।।27।।
'महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे।' यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्।।28।।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्।।29।।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्।।30।।
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति।।31।।
उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा 'रघुनन्दन ! अब जल्दी करो'।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पंचाधिकशततमः सर्गः।
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