सुंदरकांड: व्यक्ति निर्भय हो और उसका मन भीतर से शांत हो जाने कैसे --
सुंदरकांड श्रीरामचरितमानस का पांचवां अध्याय है। यह श्रीरामचरितमानस का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला भाग हैं, सफलता के सारे सूत्र सुंदरकांड में समाए हुए हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी ने बताया है कि सफलता कैसे प्राप्त की जाए, सफलता के साथ क्या किया जाए और सफलता के बाद क्या किया जाए? जिससे मनुष्य जीवन की हर समस्या का सामना कर सकता है।व्यक्ति निर्भय हो और उसका मन भीतर से शांत हो तो ऐसे लोग परमात्मा को सरलता से पा सकते हैं। परमात्मा को पाने का यह अर्थ न समझा जाए कि वे व्यक्ति के रूप में साक्षात मिल जाएंगे। परमात्मा को पाने का मामला अनुभूति से जुड़ा है। दुनिया में कई तरह के भय हैं।
धन, प्रतिष्ठा, रिश्ते, सम्मान और अपना शरीर, इन सबके नुकसान का भय मनुष्य को सताता है। आदमी इन्हीं के भय में उलझ जाता है और भूल जाता है कि सबसे बड़ा भय है मृत्यु का भय। जिसने मृत्यु के भय को ठीक से समझ लिया, वह इन भय के टापुओं से मुक्ति पा लेगा। सुंदरकांड में रावण के दरबार में रावण हनुमानजी को मारने का फैसला ले चुका था।
जब राणण को इस काम के लिए रोका गया तो उसने पूंछ में आग लगाने का आदेश दे दिया। सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।। यह सुनते ही रावण हंसकर बोला - अच्छा, तो बंदर को अंग-भंग करके भेज दिया जाए। जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउं मैं तिन्ह कै प्रभुताई।
जिनकी इसने बहुत बढ़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता तो देखूं। यहां रावण और हनुमानजी भय और निर्भयता की स्थिति में खड़े हुए हैं। रावण बार-बार इसीलिए हंसता है, क्योंकि वह अपने भय को छुपाना चाहता है।
उसने कहा - मैं इस वानर के मालिक की ताकत देखना चाहता हूं। श्रीराम की सामर्थ्य देखने के पीछे उसे अपनी मृत्यु दिख रही थी, जबकि हनुमानजी मृत्यु के भय से मुक्त थे।
रावण का चित्त अशांत था, जबकि हनुमानजी शांतचित्त से बोल भी रहे थे और आगे की योजना भी बना रहे थे। हमें जीवन में जब भी कोई विशेष कृत्य करना हो, निर्भयता और शांतचित्तता की स्थिति बनाए रखनी चाहिए।
No comments:
Post a Comment